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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा- स्वार्थ के लिए एक से अधिक शादी कर रहे मुस्लिम, कुरान में बहु विवाह की दी गई थी सशर्त अनुमति

प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक आदेश में कहा है कि इस्लाम कुछ परिस्थितियों और कुछ शर्तों के साथ एक से अधिक शादी की अनुमति देता है, लेकिन इस अनुमति का व्यापक रूप से दुरुपयोग किया जाता है. कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि प्रारंभिक इस्लामी काल में विधवाओं और अनाथों को युद्ध के दौरान सुरक्षा प्रदान करने के लिए कुरान के तहत बहु विवाह की सशर्त अनुमति दी गई थी. अब उस प्रावधान का दुरुपयोग पुरुषों द्वारा स्वार्थी उद्देश्यों के लिए किया जा रहा है.

यह आदेश न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल ने मुरादाबाद के मैनाथर थाने में दर्ज मुकदमे के आरोपी फुरकान की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया है. कोर्ट ने कहा कि यदि कोई मुस्लिम पुरुष अपनी पहली शादी मुस्लिम कानून के अनुसार करता है तो दूसरी, तीसरी या चौथी शादी शून्य नहीं होगी. इसलिए आईपीसी की धारा 494 की सामग्री दूसरी शादी के लिए लागू नहीं होगी, सिवाय उन मामलों को छोड़कर, जहां दूसरी शादी को पारिवारिक न्यायालय अधिनियम की धारा 7 के तहत पारिवारिक न्यायालय या किसी सक्षम न्यायालय ने शरीयत के अनुसार बातिल (शून्य विवाह) घोषित किया हो.

इन परिस्थितियों में दूसरा विवाह अमान्य: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि किसी व्यक्ति ने पहला विवाह विशेष विवाह अधिनियम 1954, विदेशी विवाह अधिनियम 1969, ईसाई विवाह अधिनियम 1872, पारसी विवाह एवं तलाक अधिनियम 1936 और हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत किया है और वह इस्लाम धर्म अपनाने के बाद मुस्लिम कानून के अनुसार दूसरा विवाह करता है तो उसका दूसरा विवाह अमान्य हो जाएगा. ऐसे विवाह के लिए आईपीसी की धारा 494 के तहत अपराध दर्ज किया जाएगा.

ये है मामला: फुरकान ने आईपीसी की धारा 376, 494, 120-बी, 504, 506 के तहत दर्ज मामले में आरोप-पत्र, संज्ञान और सम्मन आदेश को रद्द करने की मांग में याचिका दाखिल की. एफआईआर में आरोप है कि फुरकान ने पहले से ही विवाहित की जानकारी दिए बिना पीड़िता से शादी कर ली और शादी के दौरान उसके साथ रेप किया. दूसरी ओर फुरकान की ओर से तर्क दिया गया कि पीड़िता ने खुद स्वीकार किया है कि उसने फुरकान के साथ संबंध बनाने के बाद शादी की है. ऐसे में याची पर आईपीसी की धारा 494 के तहत कोई अपराध नहीं बनता क्योंकि मुस्लिम कानून और शरीयत अधिनियम 1937 के तहत एक मुस्लिम व्यक्ति को चार बार शादी करने की अनुमति है. यह भी कहा गया कि विवाह और तलाक से संबंधित सभी मुद्दों का निर्णय शरीयत अधिनियम 1937 के अनुसार किया जाना चाहिए, जो व्यक्ति को अपनी पत्नी के जीवनकाल में भी विवाह करने की अनुमति देता है. 1937 का अधिनियम एक विशेष अधिनियम है और आईपीसी एक सामान्य अधिनियम है इसलिए पूर्व का प्रभाव बाद वाले पर अधिक होगा.

कोर्ट ने क्या कहा: कोर्ट ने कहा कि कुरान द्वारा बहु विवाह की अनुमति के पीछे ऐतिहासिक कारण है. इतिहास में एक समय ऐसा था जब अरबों में आदिम कबीलाई झगड़ों में बड़ी संख्या में महिलाएं विधवा हो गई थीं और बच्चे अनाथ हो गए थे. मदीना में नवजात इस्लामी समुदाय की रक्षा करने में मुसलमानों को काफी नुकसान उठाना पड़ा था. उन परिस्थितियों में ही कुरान ने अनाथ बच्चों और उनकी माताओं को शोषण से बचाने के लिए सशर्त बहु विवाह की अनुमति दी थी. कोर्ट ने जाफर अब्बास रसूल मोहम्मद मर्चेंट के मामले में गुजरात हाईकोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि एक से अधिक बार शादी का उद्देश्य स्वार्थ या यौन इच्छा है तो कुरान बहु विवाह की मनाही करता है और यह सुनिश्चित करना मौलवियों का काम है कि मुसलमान अपने स्वार्थ के लिए बहु विवाह को उचित ठहराने के लिए कुरान का दुरुपयोग न करें.

कोर्ट ने कहा कि याची और विपक्षी दोनों ही मुस्लिम हैं. ऐसे में याची की दूसरी शादी वैध होगी और उसके विरुद्ध कोई अपराध नहीं बनेगा. कोर्ट ने विपक्षी को नोटिस जारी करते हुए याची के विरुद्ध किसी भी प्रकार की उत्पीड़नात्मक कार्रवाई पर रोक लगा दी।

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