इसी बहाने

यहां तो समर्थन का भी तय होता है मूल्य!

इसी बहाने (आशीष शुक्‍ला )।  चर्चा पिछले कुछ घंटों से छाई है। हम भी चर्चा में शामिल हैं। कुछ को समझ मे आ नहीं रही, कुछ समझने की कोशिश नहीं कर रहे। बचे-खुचे आधा अधूरा समझ रहे। किसान के नाम पर देश की हर सरकारों ने कुछ न कुछ किया है। सरकारों के दावे तो कहते हैं कि किसानों को इतना समर्थन दिया गया उनका उपज का समर्थन मूल्य ही बढ़ा दिया गया। अब ये औऱ बात है कि किसान से समर्थन के उद्देश्य को लेकर सरकार कर भी क्या सकती है।

समर्थन की खातिर समर्थन मूल्य क्या बढ़ा इस पर राजनीति और पक्ष-विपक्ष के हमले प्रारंभ हो गए। समर्थन मूल्य की चर्चा यूं छिड़ी कि लगने लगा समर्थन के लिए समर्थन मूल्य ही सबसे कारगर चीज है? किसानों की दशा सुधारने के प्रयास की घोषणाओं के साथ देश मे कई सरकारें बनी और बिगड़ गईं, पर किसान की दशा नहीं बन सकी।

कल अन्नदाता बनना गर्व कहलाता था आज किसान शब्द सुन कर लोग इस जीवनदाता को पता नहीं किस दृष्टि से देखते हैं। देश की अर्थव्यवस्था खेती पर टिकी होने के बावजूद देश मे कृषि का रकबा साल दर साल घटता जा रहा है। शहरों की बसाहट में कल तक जहां फसलों की हरियाली हुआ करतीं थीं आज वहां सीमेंट का जंगल बन गया है।

खेती के लिए दूर दूर तक नजरें फेरने के बावजूद हरियाली नजर नहीं आती। कई ग्रीन और यलो बेल्ट कहीं नदियों को बचाने के लिए तो कहीं खनिज संपदा को ढकने के लिये आदेश से निकल कर अखबार की सुर्खियां बनते हैं, पर अफसोस कभी भी कल तक फसलों से लहलहाते खेतों में बनी कालोनी, पार्क, इंड्रस्टीज, सड़क आदि के लिए किसी ग्रीन ट्रिब्यूनल की आवाज सुनाई नहीं देती।

हॉल ही में जारी रिपोर्ट में साफ हुआ कि वर्ष 16-17 में देश मे कई हजार एकड़ की कमी आई, और यह पिछले दस वर्षों में लगातार बढ़ती जा रही है। किसान की उपज का समर्थन मूल्य बढ़ाना अन्नदाता को जरूर तात्कालिक लाभ देने वाला होगा, लेकिन देश के हालात ऐसे रहे तो एक दिन देश से कृषि का रकबा ही गायब हो जाएगा तब न किसान रह जायेगा न उसका समर्थन और न ही समर्थन मूल्य।

खेती की आमदनी को बढ़ाने के प्रयास चल रहे हैं। इससे कोई इनकार नहीं, पर इसका लाभ किसानों तक कैसे पहुंच रहा है यह किसी से छिपा भी नहीं है। नौकरशाही ने सरकारी योजनाओं पर पलीता लगाने की सफल कोशिश की है। भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी व्यवस्था सिर्फ सर्वे या सरकारी आंकड़ों की बाजीगरी ही प्रतीत होती है। खैर खबरों में बढ़े समर्थन मूल्य का लाभ किसानों तक कब पहुंचता है यह तो आने वाला समय ही बताएगा फिलहाल तो सरकार ने समर्थन का जुगाड़ कर ही लिया है।

प्रदेश में जहां किसानों के लिए कभी समर्थन मूल्य की बात हो रही है तो कभी भावन्तर से लाभ पहुंचाने की चर्चाएं सुनी जा रहीं हैं। इन खबरों के साथ मासूम बेटियों के साथ घट रही घटनाओं से दिल सिहर उठ रहा है। समाज मे आखिर कौन सी राक्षसी प्रवृत्ति ने जन्म लिया जिसकी बुरी नजर मासूम को मौत के मुहाने पर पहुंचाने के लिए अमादा है। देश मे घटित घटनाओं से सरकारों की आंख रह-रह कर खुलीं तो मौत की सजा जैसे कानून भी हवस के भूखे लोगों को डरा नहीं पाए।

इधर घटनाओं से निकलती चीख जिम्मेदारों को हिला नहीं सकीं। कहीं मासूम के साथ वारदातों पर प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर हजार किलोमीटर दूर बैठे माननीयों ने आंसुओं से खूब राजनीति की तो कहीं अस्पताल पहुंचे माननीयों का पीड़ितों से धन्यवाद अदा कराया गया। कैंडिल मार्च की तो मानों बाढ़ सी आ गई। जिसे देखो मोमबत्ती के साथ संवेदनशील बनने की जुगत में लग गया।

प्रदेश और देश मे बलात्कार जैसे विषयों पर डिबेट होने लगीं। दर्द से कराहती मासूम के कष्ट को महसूस करने की सबने ठानी पर कितनों ने इसे सचमुच महसूस किया पता नहीं। वक्त चुनाव का है तो स्वाभाविक है सत्ता पर वार होंगे पर कम से कम ऐसी घटनाओं पर तो राजनीति बंद हो। अन्यथा समाज को हम कहां ले जाकर छोड़ेंगे, जहां इसी तरह मासूम संवेदनाओं की बलि चढ़ती रहेंगी और इस पर राजनीति होती रहेगी।

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