इसी बहाने

शौर्य और साहस के गुणगान से चुनावी गालियों पर आकर ठिठका प्रचार

इसी बहाने ( आशीष शुक्‍ला )। अमूमन चुनावी प्रचार शुरू हुआ तो सेना के शौर्य और साहस का गुणगान खूब सुनाई दिया। दो तीन चरणों तक यह चौकीदार और चोर में जाकर गुम हुआ और पांच चरण आते-आते तक यह प्रचार चुनावी गालियों की पराकाष्ठा पार कर चुका है। अब सभा में बोलबाला है तो सिर्फ चुनावी गालियों को जुबां से फूल बरसाने वाले माननीय भी खुल कर अपशब्दों का प्रयोग करने में जरा भी संकोच नहीं कर रहे। शब्द कोष से ढंूढ-ढूंढ कर ऐसे ऐसे शब्द निकाले जा रहे हैं जिनका इससे पहले भारत के लोकतंत्र में कभी भी किसी ने नहीं सुना होगा। यह पहला ही मौका है जब मुद्दे नदारद हैं, यहां तक तो ठीक अब गालियों पर जमकर राजनीति हो रही है। शब्दबांण यूं निकल कर कि कलेजे को तार तार कर रहे हैं। जैसे मानों यह चुनावी नहीं बल्कि द्वापर युग की महाभारत हो। चुनाव के अंतिम चरण में अब खोज खोज कर गड़े मुर्दे भी उखड़ रहे हैं। कौन कितना आगे गिर सकता है इसकी होड़ लगी है। कहीं हठ योग चल रहा है तो कहीं योगी संन्यासी ही मैदान मे डटे हैं। यूं नजर आता है मानों यह सरकार बनाने नहीं अपनी पुरानी से पुरानी रंजिश निकालने का वक्त आ गया हो। मतदाता भी सबकी सुन कर अपने मन की करने को बेताब है। क्योंकि उसे भी मालूम है कि, भई बड़े लोग हैं न जाने कब एक हो जाएं और बेचारी जनता ही बुरी बन जाए। यही तो राजनीति है। एक दूसरे का नाम तक सुनना पसंद नहीं करने वाले न मालुम कब मंच पर एक दूसरे का हाथ थामें नजर आ जाएं कोई नहीं सोच सकता। फिर ये गालियां तो बेहद छोटी चीज हैं। वैसे इन माननीयों से हर शख्स को एक बात तो जरूर ही सीखनी चाहिए कि कैसे चंद पलों में दुश्मनी मिटाई जा सकती है और कैसे कुर्सी के खातिर मन मिले न मिले बेमेल गठबंधन किया जा सकता है। बेचारे आम कार्यकर्ता भी नहीं समझ पाते जिसके लिए पांच वर्ष तक लड़ते झगड़ते रहते हैं वह मौका आते ही एक हो जाते हैं। सत्ता सुख की खातिर गालियां तो क्या गोलियां भी महत्वहीन हो जाएं तो आश्वर्च नहीं। सोशल मीडिया को थोड़ा सा भी देखो तो अपना मन विचलित हुए बिना नहीं रह सकता मुफ्त के प्रचार के इस प्लेटफार्म ने तो पूरे चुनावों में झंडे, बैनर, फ्लेक्स वालों का धंधा ही चौपट कर रखा है। रात रात जाग कर समर्थक ढूंढ ढूंढ कर एक तथ्य जुटाते हैं। भोर होते होते तक दूसरा समर्थक इस तथ्य की हवा निकाल देता है। कहना जरा भी अतिश्योक्ति नहीं कि आने वाले समय में तो भारत का चुनाव मैदानी स्तर पर कम सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पर ज्यादा लड़ा जाएगा। कट-कापी-पेस्ट वाले भी स्वयं को चुनावी ज्ञानी बताने दिन रात मेहनत में जुटे हैं। एक पोस्ट पर आने वाले कमेंट और लाइक से यह अंदाजा लगाने की कोशिश की जाती है कि अबकी बार किसकी सरकार? सत्ता का यह संग्राम इस हद तक पहुंच जाएगा किसी ने नहीं सोचा था। सैनिकों गोलियों के शौर्य से निकली चुनावी गाथा गालियों पर आकर ठहर जाएगी किसी को उम्मीद नहीं थी। खैर यह भी इस देश की लोकतंत्र की खूबी ही है। आप इन गालियों से स्वयं को जरा भी प्रभावित नहीं कीजिए, क्योंकि हो सकता है 23 मई के बाद गाली देने वाले ही एक दूसरी की प्रशंसा के कसीदे पढ़ें और आप अपने आप को ठगा सा महसूस करें। चाणक्य ने कहा है जो किसी की समझ में न आये वही तो राजनीति है। आपको भी समझ में न ही आये तो बेहतर। आप तो बस एक जागरूक मतदाता का फर्ज निभाएं, चुनावी गालियों के फेर में बिल्कुल भी न जाएं न तो गिफ्ट में कुर्तें की बात करें न ही रसगुल्ला खिलाने की कोशिश करें। अभी तो चुपचाप आप भी चुनावी गालियों का आनंद लें। तय है कि चंद रोज के बाद इन्हीं श्रीमुख से रसगुल्ले की चासनी गिरने लगे तो जरा भी आश्वर्य नहीं या फिर गठबंधन के रिश्ते में थमे हाथ छूट जाएं तो कोई अचरज नहीं।

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