इसी बहाने

घरों के फासले घटे, दिलों के बढ़ गए

इसी बहाने (आशीष शुक्‍ला)। आज जैसे-जैसे शहरों की बसाहट हरियाली के बीच क्रांक्रीट के जंगल के रूप में फैलती जा रही है। एक-एक इंच की भूमि को लेकर सिर फूटने से लेकर जान तक जा रहीं है। बसाहट के इस दौर में हरियाली कहीं खो सी गई है।

भवनों के निर्माण में दो घरों की सटी दीवालें हों या फिर एक दूसरे से जुड़े छत। देखने में तो ऐसा महसूस होता है मानों इन दीवारों की तरह हमारे दिलों के फासले भी समाप्त हो गए, लेकिन बात है बिल्कुल विपरीत। भले ही घर मकान की दीवारों, छत के फासले खत्म हो गए किन्तु दिलों के फासले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। दिलों के बढ़ते फासले की बानगी समाज मे रोज ही नित नए कृत्यों के साथ जग जाहिर है। कौन अपना है या पराया समझना टेढ़ी खीर ही है।

फासलों के बढ़ते दायरे का असर फैसलों पर भी साफ है। जिस तरह अव्यवस्थित बसाहट से कहीं जलाप्लावन के हालात हैं तो कहीं मूलभूत सुविधाओं का आभाव। ठीक उसी तरह दिलों में भी वैमनस्यता का जलाप्लावन शनैः-शनैः बढ़ता ही जा रहा है। दुष्परिणाम दोनों ही स्थितियों के सामने हैं। लोगों को रहने के लिए जगह का अकाल पड़ रहा है। घरों की चाहत से किसी का भी दिल नहीं भर रहा। कल तक जहां स्वछंद हरियाली मन को सुकून पहुंचाती थी आज वहां गगन चुम्बी इमारतों की बालकनियों से उदास चेहरों की झलक झांकती नजर आती है।

सावन के झूलों के लिए वृक्षों ने भी अपनी टहनियों को देने से मना कर दिया है। हरियाली के जश्न में पौधरोपण महज एक अभियान सा बन कर रह गया है। जल, जंगल और जमीन तीनों ही आवश्यकताओं को अब किस्से कहानियों का बेहतर किरदार बनाया जा रहा है। घरों से निकलता जल या फिर बारिश का पानी सीवरेज सिस्टम के कमीशन के खेल से पूरी तरह से अवरुद्ध नजर आता है। बारिश तो पहले भी होती थी। कभी तीन दिन, तो कभी पांच-सात दिन की।

सावनी झड़ी इस कदर कहर बरपाती थी कि माँ नर्मदा का क्रोधित रूप देखने तिलवारा में मेला भरता था। जब छोटा पुल डूबता था तो लगता था कि बारिश हुई है। आज आलम यह है कि अव्यवस्था की बसाहट शहर के हर गली मोहल्ले में बाढ़ का एहसास महज कुछ घण्टे की बारिश में करा देती है। समस्या आने वाले दिनों में कम होने की कोई सम्भावना नहीं ।

सड़कों की उधेड़बुन सरीखे कार्यों की गति कभी नालियों को इस किनारे से निकालना तो कभी उस किनारे से, कभी बीच सड़क पर। यह आज तक डिसाइड ही नहीं हो सका कि पानी निकलेगा कहां से ? आलम यह है कि पानी ने उसके रास्ते बनाने वालों की इस असहज स्थिति को भांप कर स्वयं ही अपने बहने की जगह बना ली। तभी आज कुछ क्षण की बारिश और शहर पानी-पानी। जिसमे तैरने लगती है अदूरदर्शिता, जिसमे उतराने लगता है मोटा कमीशन और जिसमे बहने लगता है माननीयों का आश्वासन। मौसम बारिश का है तो पूरे देश का ही यही हाल है।

लाखों परिवार बेघरबार हैं। कई जिंदगियां असमय मौत के आगोश में अपनों को अनाथ कर चुकीं हैं। हम हैं कि सीवेरज सिस्टम की खोज में लगे सड़कों को उखाड़ रहे हैं, तो कभी अतिक्रमण ढहा कर वाहवाही लूटने में लगे हैं। घरों के फासलों के साथ दिलों के कम होते फासले ने देश में अमानवीय कृत्यों की बाढ़ ला दी है। पानी का क्या आज है कल चला जाएगा, पर वैमनस्यता की यह बाढ़ न जाने समाज का किस ओर ले जाएगी।

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