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जाति गणना से बदल सकती है आरक्षण की तस्वीर: बढ़ेगी हिस्सेदारी की मांग, गहराएगा सामाजिक विभाजन?

जाति गणना से बदल सकती है आरक्षण की तस्वीर: बढ़ेगी हिस्सेदारी की मांग, गहराएगा सामाजिक विभाजन?

जाति गणना से बदल सकती है आरक्षण की तस्वीर: बढ़ेगी हिस्सेदारी की मांग, गहराएगा सामाजिक विभाजन?।

देशभर में जाति आधारित जनगणना को लेकर चर्चाएं तेज हैं। आने वाले समय में यह गणना न केवल आरक्षण की सीमा को बदल सकती है, बल्कि समाज के भीतर नए समीकरण और विभाजन भी पैदा कर सकती है। आंकड़ों के आधार पर पिछड़े वर्गों और अन्य समुदायों की हिस्सेदारी को लेकर मांगें बढ़ेंगी, जिससे सामाजिक और राजनीतिक संतुलन पर बड़ा असर पड़ सकता है।

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने जाति गणना को मंजूरी दे दी है। माना जा रहा है कि गणना के आंकड़े आने के बाद भारत में बहुत कुछ बदल जाएगा। मोदी सरकार का यह फैसला ऐसा है, जिसकी मांग पिछले काफी सालों से की जा रही थी। माना जा रहा है कि जाति गणना के आंकड़े आने के भारत में बहुत कुछ बदल जाएगा। सबसे बड़ा जो बदलाव हो सकता है, वह है आरक्षण पर 50 फीसदी की सीमा को बढ़ाया जाना। अभी सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर 50 फीसदी का कैप लगा रखा है।

गणना के बाद समाज में नए विभाजन पैदा होने का खतरा भी रहेगा। आइए जानते हैं जाति गणना के बाद होने वाले संभावित पांच प्रमुख बदलावों के बारें में…

आरक्षण की सीमा खत्म होगी

सुप्रीम कोर्ट के नौ न्यायाधीशों की सांविधानिक पीठ ने 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी तय की थी। अपने अमह फैसले में अदालत ने कहा था कि इससे ज्यादा आरक्षण संविधान की मूल भावना के खिलाफ होगा। अब जाति गणना के आंकड़े आने के बाद ओबीसी की जातियां अपनी जनसंख्या के मुताबिक आरक्षण की मांग करेंगी। इससे सरकार को आरक्षण की इस सीमा को खत्म करने के प्रयास करने पड़ सकते हैं। इससे ओबीसी की जातियों को उनकी जनसंख्या के मुताबिक आरक्षण देने का रास्ता साफ होगा।

संसद और विधानसभाओं की बदलेगी तस्वीर

जाति गणना के बाद संसद और विधानसभाओं की तस्वीर भी बदल जाएगी। जिन जातियों की संख्या अधिक होगी, वो लामबंद होंगी। इसके बाद राजनीतिक दल चुनावों में उनको अधिक सीटें दे सकते हैं। इसका असर संसद और विधानसभा में भी दिखाई देगा। ओबीसी जातियों की गोलबंदी 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद नजर आई थी। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद देश में सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दलों का उदय हुआ था। समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, सुभासपा, अपना दल जैसे दल इसी राजनीतिक के परिणाम हैं। इसका प्रभाव यह हुआ कि बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस का सूरज डूब गया। उनका वोट बैंक सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दलों के साथ चला गया है। अपने खोए हुए जनाधार को वापस पाने के लिए ही कांग्रेस जातीय जनगणना और संविधान पर खतरे का मुद्दा उठाती है। इसलिए कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस की सरकारों ने जातीय सर्वेक्षण कराए हैं।

जाति गणना से बदल सकती है आरक्षण की तस्वीर: बढ़ेगी हिस्सेदारी की मांग, गहराएगा सामाजिक विभाजन?

 

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