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समलैंगिकता मामला : केंद्र ने SC में कहा- कोर्ट करे इस पर फैसला

नई दिल्ली। समलैंगिकता को अपराध मानने वाली भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की धारा 377 की वैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के सामने सुनवाई बुधवार को भी जारी रही। इस दौरान केंद्र सरकार ने कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर दिया। कोर्ट में केंद्र की तरफ से पैरवी कर रहे अटॉर्नी सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि केंद्र ने यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ा है कि वो इसकी संवैधानिकता पर फैसला ले।

इससे पहले इस मामले में मंगलवार से ऐतिहासिक सुनवाई शुरू हुई। कोर्ट ने शुरुआत में ही साफ कर दिया कि वह समलैंगिकों के विवाह, उत्तराधिकार और लिव इन रिलेशनशिप जैसे मुद्दों पर विचार नहीं करेगा। अभी सिर्फ कानून की वैधानिकता पर विचार होगा। कोर्ट सिर्फ यह देखेगा कि दो बालिगों के बीच एकांत में सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध माना जाए या नहीं।

प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, रोहिग्टन नारिमन, एएम खानविल्कर, डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदू मल्होत्रा की पांच सदस्यीय पीठ ने मंगलवार को मामले पर सुनवाई शुरू की। कोर्ट ने कहा कि वह यह विचार करेगा कि सुप्रीम कोर्ट का 2013 का फैसला सही है या नहीं।

सुनवाई के दौरान जब कोर्ट से “नाज फाउंडेशन” ने क्यूरेटिव याचिका को भी सुनवाई के लिए लगाने का आग्रह किया तो कोर्ट ने कहा कि वे फिलहाल रिट याचिकाओं पर विचार करेंगे।

सुनवाई के दौरान जब याचिकाकर्ता नृतक नवतेज जौहर के वकील मुकुल रोहतगी ने कहा कि समलैंगिक सैक्सुअल माइनॉरिटी में हैं। उनके संवैधानिक हित संरक्षित होने चाहिए। कोर्ट को सिर्फ धारा 377 तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। निजी मुद्दों पर भी विचार होना चाहिए। लेकिन केंद्र की ओर से पेश एएसजी तुषार मेहता ने इसका विरोध करते हुए कहा कि सुनवाई सिर्फ 377 तक ही सीमित रहे। पीठ ने स्पष्ट किया कि उनके सामने सिर्फ यही सवाल है कि धारा 377 वैधानिक है या नहीं। इस पर फैसला होने के बाद ही अन्य मुद्दे आते हैं।

रोहतगी ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने की मांग करते हुए कहा कि समलैंगिकों के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए। कोर्ट का 2013 का फैसला सही नहीं है। धारा 377 ब्रिटिश कालीन कानून की वजह से 1860 में आइपीसी में शामिल हुई। जबकि प्राचीन भारत में हालात अलग थे। उन्होंने महाभारत के पात्र शिखंडी का उदाहरण दिया। कहा कि इस कानून के कारण समलैंगिक समुदाय (एलजीबीटी) प्रताड़ना झेल रहा है। धारा 377 यौन नैतिकता को गलत तरीके से परिभाषित करती है।

एक अन्य याचिकाकर्ता के वकील अरविंद दत्तार ने कहा कि समलैंगिकता मानव सैक्सुएलिटी की सामान्य प्रक्रिया है। इस पर जस्टिस इंदू मल्होत्रा की टिप्पणी थी कि समलैंगिकता सिर्फ मनुष्यों में ही नहीं पशुओं में भी देखी जाती है। दत्तार ने कहा कि अगर ये प्राकृतिक प्रवृति है तो इसे अपराध क्यों माना जाए। उन्होंने निजता को मौलिक अधिकार बताने वाले फैसले का भी हवाला दिया। इस पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि अगर यह दलील मानें तो समान लिंग का जीवनसाथी चुनना भी जीने के अधिकार के तहत होगा। इसमें यौन पसंद का अधिकार भी शामिल है। इस मामले में बहस बुधवार को भी जारी रहेगी। माना जा रहा है कि केंद्र सरकार वर्तमान कानून के पक्ष में खड़ी दिखेगी जिसमें समलैंगिकता गैरकानूनी है।

क्या है मामला

आइपीसी की धारा 377 में अप्राकृतिक यौनाचार को अपराध माना गया है। इसमें 10 वर्ष से लेकर उम्रकैद तक और जुर्माने की सजा हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं लंबित हैं जिनमें इस धारा की वैधानिकता और सुप्रीम कोर्ट के 2013 के फैसले को चुनौती दी गई है।

अटार्नी जनरल वेणुगोपाल ने मामले से खुद को अलग किया

अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने मंगलवार को समलैंगिकता मामले में पैरवी से खुद को अलग कर लिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि चूंकि वह 2013 के फैसले के खिलाफ दायर क्यूरेटिव याचिका में एक याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए थे, इसलिए अटॉर्नी जनरल के रूप में वह सरकार का पक्ष रखने की स्थिति में नहीं हैं। उन्होंने इसकी जानकारी संबंधित विधि अधिकारी को दे दी है।

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