इसी बहाने

बयानों की बारिश से यहां तो अक्सर ही आ जाती है बाढ़

इसी बहाने(आशीष शुक्‍ला)। मौसम बारिश का शुरू हो गया, मानसूनी फुहार कभी इस नगर तो कभी उस नगर, दो माह की गर्मी झेलते नागरिकों को आसमान से ठंडक नसीब हुई अब बारी पानी के उत्पात की है। विडंबना ही कहें जब तक बारिश न हो तब संकट और जब हो तो बाढ़ का संकट, गर्मी पड़े तो लू का संकट और कपकपाती ठंड आये तो शीत लहर का संकट।

संकट से जूझने का तो मानों हमने बीड़ा ही उठा लिया है। प्रकृति असंतुलित हो रही है तो खामियाजा भी वही भुगत रहे हैं जो इस प्रकृति को असंतुलित करने का बीड़ा उठाये हैं। कहीं विकास के नाम पर तो कहीं सुविधाओं के नाम पर हरियाली को खत्म कर क्रांक्रीट के जंगल को सजाने-संवारने की होड़ सी लगी है। रिक्त भूमि पर बढ़ती बसाहट का नतीजा कभी उत्तर की तबाही के रूप में सामने खड़ी होती है तो कभी दक्षिण में बिन मौसम बाढ़ के रूप में सामने दिखती है।

बहरहाल मौसम की इस परीक्षा का दौर सबसे ज्यादा मानसूनी वक्त में नजर आता है, लेकिन फिलहाल तो बयानों की बौछार मध्यप्रदेश में खूब हो रही है। बौछार भी कुछ ऐसी की कहीं आक्रोश की बाढ़ आ रही तो कहीं आंदोलन प्रदर्शन का जलजला खड़ा है।

बयानों की नित नई वेरायटी कभी लोगों को लुभा रही है, तो कभी सता रही है। आये दिन इस पर जुबानी जंग किसी युद्ध क्षेत्र की कल्पना को साकार करती नजर आती है। बयानों की यह बौछार इस कदर हावी है कि,मानसूनी फुहार भी शर्म से पानी-पानी है। इसे बयानों की बिसात ही कहें कि, 40 साल पुरानी याद भी कुछ यूं ताजी हो जाती हैं जैसे मानों मानों कल ही सब कुछ घटित हुआ है। काल भी आपातकाल की कहानी से खुद को घिरा हुआ पा रहा है। युवा पीढ़ी जिसे अब तक इमरजेंसी का अर्थ किसी संकट के वक्त के हालात से निपटना ही पता था उसे भी पता चल गया कि अरे इमर्जेंसी का अर्थ तो संकट से निपटने से कहीं ज्यादा संकट के आने से होता है।
यह तो इस देश की राजनीति का वो जिन्न है जिसने 43 साल बाद फिर से कई की जुबां खोल दी तो कई की जुबां पर ताला ठोंक दिया। जनता इसी में उलझी है। खास तौर पर वो जो उस वक्त इस संसार में भी नहीं आये थे। किसी ने सही कहा है कोई भी काम ऐसा करो कि इतिहास बन जाये, फिलहाल तो यह इमरजेंसी इतिहास कुछ ऐसा बना है कि आज चार दशक बाद भी लग रहा मानों वही इमरजेंसी लग गई।

इमरजेंसी सर्विस भी बार-बार इस इमरजेंसी का नाम सुनकर खुद पर शक करने लगीं। अस्पताल, एम्बुलेंस, दमकल वाहनों में लिखे इमरजेंसी के शब्द को बच्चे भी गौर से देख रहे हैं, सोच रहे कि आखिर देश में किस इमरजेंसी की बात हो रही है? यहां तो जगह जगह इमरजेंसी दिख रही है। खैर न भूतो न भविष्यति बात तो वर्तमान की हो तो बेहतर।

आज के हालत में बयान मानसून की तरह झड़ी लगा कर बैठे हैं। किसके दो शब्द कब राजनीति की बिसात पर ढाई घर की चाल बन जाएं कुछ नहीं कहा जा सकता। कई जुमले जो अब तक साहित्य की किताबों में दफन थे आज सिर उठा कर जनता के साथ खड़े हैं। कहना अतिश्योक्ति नहीं कि जुमलों को भी नई पहचान मिल गई है। यही तो हमारे देश की ताकत है। पता नहीं कब किस बात को टॉप रेटिंग मिल जाये और कब डब्बू अंकल का डांस फेमस हो जाये। कोशिश में लगे रहें पता नहीं कब आपकी भी किस्मत खुल जाए।

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