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अपने ब्रम्ह स्वरूप में आचरण करना ही उत्तम ब्रम्हचर्य है : ब्र शांतानंद जी

साधना की पहली सीढ़ी है ब्रह्मचर्य : ब्र. शांतानंद जी

अपने ब्रम्ह स्वरूप में आचरण करना ही उत्तम ब्रम्हचर्य है : ब्र शांतानंद जी

कटनी -ब्रह्माणि आत्मनि चरितीति ब्रह्मचर्य:” ब्रह्म का आचरण करना, अपनी ज्ञायक स्वभावी आत्मा में लीन हो जाना ही ब्रह्मचर्य धर्म है। व्यवहार से कुशील के अभाव को ब्रह्मचर्य धर्म कहा जाता है अर्थात स्पर्शन इन्द्रिय तथा अन्य चारों इंद्रियों के विषयों से सर्वथा विमुख हो जाने को ब्रह्मचर्य कहते हैं क्योंकि कामभाव केवल स्पर्शन इन्द्रिय का ही विषय नहीं है, किसी सुन्दर शरीर, नृत्य,अश्लील चित्र आदि को आखों से देखना, कामभाव उत्पन्न करने वाले गीतों/ कथाओं को कानों से सुनना, भीनी गंध वाले इत्र आदि को नासिका से सूंघना, स्वयं के शरीर को पुष्ट करने के भाव से तथा रसना इंद्रिय की लोलुपता से गरिष्ठ एवं अभक्ष्य का सेवन करना इत्यादि कार्यों से भी अब्रह्म का भाव होता है। उक्त सारगर्भित उद्गार पर्युषण पर्व के अंतिम दिन उत्तम ब्रम्हचर्य धर्म के दौरान बाल ब्रम्हचारी शांतानंद जी महाराज ने तारण तरण दिगम्बर जैन मंदिर बड़गांव में व्यक्त किए। धर्म सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने आगे कहा कि हम जब तक बाह्य पांचों इन्द्रियों के क्षणिक सुख अर्थात उनके सत्ताईस विषयों से विरक्त नहीं होते तब तक हमारी अंतरंग विरक्ति होना असंभव ही है। जो एक दिन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा करता है वह लाखों जीवों को अभयदान देता है। शील से युक्त पुरूष धन रहित होने पर भी तीनों लोकों में पूज्य होता है, किंतु शील रहित मनुष्य धनवान होने पर भी अपने बंधुओं से भी सम्मान नहीं पाता है। जो पांचों इन्द्रियों को संकुचित कर अपनी आत्मा को देखने लगते हैं, वे उत्तम ब्रह्मचर्य पालन करने वाले होते हैं, उनके लिए आचार्यों ने कहा है कि वे योगीराज चित्त के भटकाव को रोक, एकांत में स्वात्मा में स्थिर हो कर, स्व आत्म तत्व का अभ्यास करते हैं। ब्रह्म अर्थात आत्मा और चर्या अर्थात रमण करना, अर्थात समस्त विषयों में अनुराग, राग -द्वेष के विकारी परिणामों को छोड़कर अपने आत्म- स्वरूप में रमण करना या लीन रहना ही सच्चा- ब्रह्मचर्य है।

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