इसी बहाने

बेगुनाह मासूमों की मौत पर कब तक लगेगी मुआवजे की बोली

इसी बहाने (आशीष शुक्‍ला) । सुबह-सुबह तैयार होकर, नहा धो कर स्कूल जाने की बेताबी। किसी का बस्ता नहीं मिल रहा तो किसी के जूते, मोजे, टाई खो गए। किसी का लंच बॉक्स तैयार नहीं तो कोई मां अपने लाड़ले को जल्दी तैयार होने के लिए पुकार रही। पिता दरवाजे पर खड़ा अपने लाड़ले के आने का इंतजार कर रहा दौड़ कर लाड़ला पहुंचा।

झट से गाड़ी में बैठा, मम्मी-दीदी-भैया को बाय-बाय कहते खुशी-खुशी चन्द पल में नजरों से ओझल हो गया। चौराहे पर खड़ी स्कूली वेन में अपने लाड़ले को बैठा कर पिता बार-बार लाड़ले को समझाता रहा कि बेटा अच्छे से जाना खिड़की से हाथ बाहर नहीं निकलना। मासूम के प्रति माता-पिता की यह दीवानगी भरा स्नेह मानों रोजाना ही उनकी दिनचर्या का हिस्सा थीं।

सुबह-सुबह अपने होनहार भविष्य को पढ़ा लिखा कर कुछ बनाने की यह तमन्ना हर अभिभावक के दिल मे होती हैं, पर आज सुबह तो नियति को कुछ और ही मंजूर था। किसी का लाड़ला बेटा रोज की तरह 44 डिग्री के इस तापमान में स्कूल नहीं जाने की माता-पिता से गुहार लगा रहा था। उसे आभाष सा था कि आज कुछ बुरा तो नहीं होने वाला है पर मम्मी पापा यह कहते हुए अपने मासूम को स्कूल जाने के लिए तैयार कर रहे थे कि बस 2-4 दिन फिर तो छुट्टी।

आशंका और डर के बावजूद अपने माता-पिता का कहना मान ये नन्हा सा बालक चुपचाप चल दिया उसे तो लग रहा था कि आज कहीं स्कूल का यह सफर उसका अंतिम सफर तो नहीं? पर भला किससे कहता । घर से निकला तो माता पिता को भी अहसास नहीं था कि अब उनका लाड़ला वापस नहीं आएगा। अभी चन्द पल ही गुजरे थे कि एक दो नही दो दर्जन से अधिक घरों को उस खबर ने मानों पहाड़ टूटने का अहसास करा दिया। घरों से आवाक लोग दौड़े, जो जिस हालत में था भागा, उस मनहूस स्थान की ओर जहां उनके दिल के टुकड़े के मासूम जिस्म के सिर्फ टुकड़े ही दिखे। कोई चीख रहा था तो कोई अपने लड़के के क्षत-विक्षत शरीर को गले से लगा रहा था।

हमेशा के लिये खामोश नन्हे से राज दुलारे की क्या सिर्फ इतनी ही गलती थी कि वह इस देश की उस अव्यवस्था की बलि चढ़ गया था जिसमे आये दिन स्कूली वाहन कभी किसी ट्रक से टकरा कर चूर-चूर हो जाते हैं तो कभी किसी गहरी खाई में समा जाते हैं, या फिर बिना समपार फाटक पर मौत बनकर आती किसी ट्रेन से टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं। भला इसमे उन निर्दोष मासूमों का क्या दोष? दोष सिर्फ इतना कि सूर्य की 44 डिग्री की तपिश में स्कूल लगाने की फरमानी या फिर वो लापरवाही जिसमें स्कूली वेन के चलने और चलाने दोनो के नियमों की अनदेखी।

इस देश का यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि यहां आज 21 वीं सदी के विकास के डिंडोरे बावजूद रेलवे लाइन क्रासिंग रहित नहीं बन सकीं या फिर इतना कि शिक्षा के बढ़ते व्यवसायी करण के बीच स्कूलों में कंडम वाहनों का चलना अथवा मासूमों की जान ऐसे चालकों के हाथों में देना जिन्हें ठीक से वाहन का स्टेयरिंग भी पकड़ते नहीं बनता। आखिर कब तक देश के नौनिहाल यूं ही देश का भविष्य बनने से पहले ही देश का अतीत बनते रहेंगे? कब तक मुआवजों का ऐलान कर जिम्मेदार हरे जख्म पर पैसे का मरहम भरते रहेंगे? कब तक बेगुनाहों के लहू पर जांच के नाटक चलते रहेंगे और आखिर कब तक हम अपने दिल के टुकड़ों को बेजान बन कर अपने सीने से लगाते रहेंगे?

इस देश की हर सुबह खुशनुमा हो, भला कौन नहीं चाहता, पर हर सुबह हादसों की खबरें दिल को झकझोर कर रख देतीं हैं। खास तौर पर जब मासूम बच्चों की असमय मौत के समाचार मीडिया की सुर्खियां बनते हैं, तब लगता है कौन से विकास की बात करते हैं हम, किस सुरक्षा की वकालत करते हैं हम। जब इस देश मे बेगुनाह मासूमों के घर से निकलने पर उनके वापस सकुशल आने की ही कोई गारंटी नहीं तो फिर भाषणों की लंबी बातों को क्यों तरजीह दें हम…।

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