पहचान की राजनीति बनाम संविधान आधारित नागरिकता

इसी बहाने (आशीष शुक्ला )। राजीनीतिक शुचिता आज एक ऐसा विषय है जिस पर बोलना तो सभी चाहते हैं भाषणों से लेकर बन्द कमरों की मीटिंग तक हर जगह इस शुचिता की बात खूब होती हैं पर क्या देश के लोकतंत्र में यह शुचिता अभी जीवित है या फिर केवल उद्धबोधन की वाणी में प्रिय नजर आती है। सवाल हर भारत वासी के मन मे कौंधता रहता है।
आज इस विषय पर चिंतन मंथन की जरूरत है। देश मे केवल पहचान की राजनीति ने अपनी जगह बना ली है ऐसा प्रतीत होता है संविधान आधारित नागरिकता कहीं खो सी गई है। संविधान में निर्दिष्ट नागरिकता के मायनों को अब केवल संविधान की किताब में उल्लेखित होते ही देखा जा सकता है। पहचान की राजनीति इस कदर हावी है कि दल कार्यकर्ता या फिर दलीय आस्था भी दरकिनार नजर आती है। राजनीति के जरिये राष्ट्र सेवा या फिर समाज सेवा अथवा व्यक्ति सेवा से कहीं ज्यादा ध्यान व्यक्तिगत सेवा ठहर गया है। इस पहचान की यह राजनीति स्वयं को स्थापित करने की दिशा में पूरे आत्मविश्वास के साथ सफल भी है। जनता चेहरों की समानता में उलझी नजर आ रही है। उसे जब तक किसी चेहरे पर विश्वास होता है तब तक कोई दूसरा चेहरा उसके सामने आ जाता है। आलम यह कि पार्टी के चिन्ह भी इस चेहरों के पीछे छिपे होने का अहसास कराते रहते हैं। मेरी पहचान बने बस अब सिर्फ एक ही धेय है। इसी धेय को अब राजनीतिक दल अपना सिद्धांत बनाने में जी जान से जुटे हैं। फिर चाहे उसके लिए शुचिता को ही क्यों न ताक पर रखा जाए। फिर चाहे उसके लिये बन्धन या गठबंधन ही क्यों न बनाना पड़े। सिद्धान्तों का बंधन एक हो न हो शुचिता का बंधन एक हो न हो विचारों का बंधन एक हो न हो पर राजनीति का गठबंधन तो एक हो ही जाता है। कहीं न कहीं इसमें राजनीतिक पहचान बनाने की महत्वाकांक्षा छिपी होती है।
महत्वाकांक्षी बनती जा रही राजनीति में संविधान आधारित नागरिकता की पहचान कठिन प्रतीत हो रही है। संविधान में नागरिकता का जो उल्लेख प्रस्तुत किया गया वह फ़िलहाल पहचान बनाने की जद्दोजहद में खो गया।
बहरहाल देश मे अब संविधान आधारित नागरिकता को लेकर गहन मंथन की जरूरत आन पड़ी है। संविधान की कसौटी पर भारत की नागरिकता का गौरव कम न हो इस पर ध्यान देने की आवश्यकता स्पष्ट परिलक्षित है। संविधान में नागरिक ही सर्वोपरि है इस सर्वोच्च मुकाम के बावजूद पहचान की होड़ ने नागरिकों के अधिकारों का गाहे बगाहे या फिर हर मौके पर हास ही किया है। मौका है यह सोचने का कि जिस नागरिकता को लेकर हमारे मन मे सदैव गौरव का भाव रहा, जिस नागरिकता में अपना जीवन गुजार कर देश का प्रत्येक नागरिक गौरवान्वित था आज वही अपने नागरिक अधिकारों को हासिल करने के लिये सोच में डूबा है। पहचान बनाने के लिये वह भी उसी दौड़ में शामिल होने को विवश है जिसमें हमारे देश के कर्णधार राजनीति के जरिये अपनी पहचान स्थापित करने की खातिर इन अधिकारों को भी तिलांजलि देने को आतुर नजर आ रहे हैं।
बहरहाल ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पहचान की राजनीति बनाम संविधान आधारित नागरिकता हर जगह संघर्षरत नजर आएगी । यह संघर्ष भले ही पहचान बना चुके माननीयों को न दिखे पर देश के सवा सौ करोड़ देशवासियों के दिल मे दबे रूप में महसूस की जाती रहेगी। हां इसके लिए जिम्मेदार लोगों को वक्त रहते सोच लेना होगा अन्यथा नागरिक ही मतदाता होगा और मतदाता का फैसला ही सर्वोपरि होगा।