इसी बहाने

चीख-पुकार में में बदल गईं नन्हीं किलकारियां

आशीष शुक्‍ला। तंत्र जब दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है तो इसका खामियाजा निर्दोषों को ही भुगतना पड़ता है। अभी जो नन्हें पौधे वृक्ष बन कर छांव देने के लिए पनप ही रहे थे तभी सिस्टम के ख़ंजर ने वो वार किया कि मासूमों के लहू से वसुंधरा का दिल भी तार-तार हो गया। कल तक नन्हे-मुन्नों की किलकारियों से गूंजती वो आवाज एक स्कूली बस जिसके आने का इंतजार करते कंपकपाते जाड़े या फिर आसमान से बरसती आग जैसी गर्मी अथवा घनघोर घटाओं से बरसती बारिश के बीच सड़क पर खड़े होकर इंतजार करती थी। प्रतिदिन की स्कूल जाने की खुशी और उससे भी ज्यादा घर वापस आने की प्रसन्नता के बीच प्रतिदिन की यह दिनचर्या इंदौर की सभी प्रमुख सड़कों पर सुबह और शाम को नन्हें बच्चों की नन्ही सी आवाज से गुंजायमान होती थी, पर किसे मालूम था

कि एक दिन यह नन्हे बच्चों की किलकारियों चीत्कार में बदल जायेंगी, या फिर स्कूल की डेस्क से निकल कर अस्पताल की चारपाई में लेटी हुई कराहती नजर नजर आयेंगी। दोषी कौन? इसे लेकर तर्क-वितर्क से कहीं ज्यादा कुतर्कों का दौर अभी तक चल रहा है। हमेशा की तरह किसी गंभीर परिणाम की आस देखते हमारे सिस्टम के वो सारे प्रयास प्रारंभ हो गए जो अमूमन कुछ दिन जांच, चालान या फिर जुर्माने जैसी प्रक्रियाओं से गुजरते हुये कुछ रोज खूब सुर्खियां बटोरेंगे फिर एक सच किन्तु बुरा स्वप्न समझ कर भुला दिए जाएंगे।

यह कोई नया नहीं, जब-जब निर्दोष मासूमों का लहू सड़क पर बिखरता है तब तक सिस्टम में गजब की तल्खी आ जाती है। सुधार के वो सारे प्रयत्न कर लिए जाते हैं जो देखने सुनने में तो भाते ही हैं। जिम्मेदार माननीय पीड़ितों की खरी खोटी सुन कर भी सन्न खड़े नजर आते हैं। इस पर भी विपक्षी दल उनकी खूब मजाक उड़ाते हैं। तब उन्हें भी इससे सरोकार नहीं रहता कि कम से कम इस संवेदनशील मसले को तो राजनीतिक चश्मे से दूर रहें। मिनी मुंबई के नाम से मशहूर इंदौर शहर की सड़कों में आज भी खामोशी है। सुबह-सुबह कड़कड़ाती ठंड में ठिठुरते नन्हे हाथ सड़कों के किनारे अपने अभिभावकों के साथ आज भी अपने स्कूल की बसों के इंतजार में खड़े नजर आते हैं मगर इन्हें स्कूल भेजने वाले अभी भी एक बस देख कर सहम जाते हैं।

मासूमियत सी आंख अपने मम्मी-पापा को एक टक निहारतीं हैं। आखिर कल तक उत्साह से स्कूल भेजने की जिद करने वाले मम्मी-पापा आज इतने खामोश क्यूं हैं। मासूमों की इस खामोशी में छिपी है हमारे देश के सिस्टम की वह नाकामी जो किसी चर्चा या फिर परिचर्चा से हल होने वाली नहीं है। इंदौर की एक घटना नहीं यहां तो रोज ही ऐसी घटनाएं हैं जो मीडिया की सुर्खियां बनने के लिए बेचैन नजर आतीं हैं। कहीं सड़क दुर्घटनाओं में मासूमों की जान जातीं हैं तो कहीं मध्यान भोजन की जहरीली सब्जी-पूरी इन्हें असमय काल के गाल में ले जातीं हैं।

आखिर कब तक हम अपनी इस लचर व्यवस्था की भट्टी में मासूमों को झोंकते रहेंगे? आखिर कब तक घटना घटने का इंतजार करने के बाद हमारा सिस्टम सक्रिय होगा? एक घटना होगी फिर उसकी जांच या उससे बढ़ कर न्यायिक जांच का डिंडोरा पीटा जाएगा। नन्हें मुन्नों और उनके माता पिता के हरे जख्म में मुआवजे का मरहम लगाकर आवाक माता-पिता या अभिभावकों को राहत का नाटक किया जाएगा, लेकिन कब तक इसी तरह मासूमों का लहू बहता रहेगा? दुर्भाग्य आज दुनिया के आंकड़ों में बच्चों की इस असमय मृत्यु के मामले में हम अव्वल हैं। कहीं जन्म के साथ तो कहीं गर्भ में ही एक नन्हा सा पौधा पनपने से पहले ही उखड़ जाता है, केवल और केवल सिस्टम की लापरवाही से। फिर हम और हमारा सिस्टम एक दूसरे पर दोषारोपण करते हैं। चार दिन गम दिखाने के बाद फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है और फिर यही सिस्टम किसी दूसरे हादसे के इंतजार में तैयार हो जाता है।

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