खाली हाथ आये थे, भरे हाथ जाएंगे….!

इसी बहाने (आशीष शुक्ला)। देश दुनिया मे कहावत प्रचलित है, एक दिन सबको छोड़कर जाना है। खाली हाथ आये थे, खाली हाथ जाना है, थोड़ा और परिस्कृत रूप में कहा जाए तो एक दिन सब कुछ छोड़ कर जाना है? पर अब कहना बेमानी नहीं कि सब कुछ ले कर जाना है। खाखाली हाथ आये थे, भरे हाथ जाएंगे….!ली हाथ का प्रासंगिकता पर वर्णनीय बात यह कि अब तक पता था यह जीवन का वह शास्वत सत्य है जिस पर मैने तो अपने जीवनकाल में कई उपदेश सुनें है, पढ़े हैं, देखे हैं। बुद्धिमानजनों का घंटों लेक्चर झेला है।
आज जब देश मे सबको छोड़कर और सब कुछ लेकर जाने कि चर्चा सुनकर रात-रात नींद नहीं आ रही तो यह कहावत चरितार्थ हो रही है कि क्या वास्तव में सबको छोड़कर और सब कुछ छोड़कर नहीं बल्कि सब कुछ लेकर जाने वाले को भला कौन रोक सकता है? यह नश्वर शरीर जिसे जीवित रहने के लिए बस दो वक्त की रोटी, एक छोटा सा बिछौना और एक अदद सिर ढांकने वाली छत की छांव बस चाहिये फिर क्यों सबको छोड़कर और सब कुछ लेकर जाने के लिए लोग बेचैन हैं। प्रचलित कहावतें रह-रह कर मेरे मन को पिछले कुछ दिनों से काफी परेशान कर रहीं हैं। तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा…भी कान में गूंज रहा है।
हम क्या लेकर आये थे और पता नहीं क्या-क्या लेकर जाएंगे, अब बेमानी सा लगने लगा है।चिंता तो जायज है कि खाली हाथ जरूर आएंगे पर खाली हाथ बिल्कुल नहीं जाएंगे। नीरव की छांव में ललितमयी इस जीवन पर जरूर ही विजय पाएंगे। धन्य हैं देश के वो तमाम हर्षद जन जिनके मूर्धन्य व्यक्तित्व से प्रभावित होकर खाली हाथ आने फिर भरे हाथ जाने की परिकल्पना साकार हुई। हमारा देश चर्चाओं में है
उन खजांची संस्थानों को लेकर भी दुनियाभर में मशहूर हो गये हैं। जहां अक्सर 5 सौ-हजार निकालने के लिए घंटों कतार में खड़े आम व्यक्ति को देखा जा सकता है। एक हस्ताक्षर या फिर अंगूठा की खातिर हफ्तों किसी गरीब मध्यमवर्गीय को अपने तथाकथित पाक-साफ ईमानदार और पाई-पाई का हिसाब रखने वाले बैंकों की चौखट पर नाक रगड़ते देखा जा सकता है। हम आश्चर्यचकित हैं, लोक अदालतों में दिखने वाली उस भीड़ को देखकर जो हाथ मे 10-20 हजार का नोटिस थामे इन्हीं बैंक से कभी महज कुछ सौ रुपये की छूट की खातिर इस टेबल से उस टेबल भटकती रहती है।
हम हैरान रहते हैं उन युवाओं को देखकर जो महज कुछ हजार रुपये कर्ज की खातिर बैंक-बैंक घूमकर अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने के लिए परेशान रहते हैं। हम तब और भी आश्चर्यचकित हो जाते हैं जब भरी जनता की सभा में मुखिया चिल्ला-चिल्ला कर यह कहते हैं कि बैंक भांजे भांजियों को कर्ज दें गारंटी की चिंता न करें।
गारंटी उनका मामा लेने को तैयार है। अब जब हजारों करोड़ रुपये बैंक से एक दिन नहीं बल्कि पूरे पांच साल में किश्त दर किश्त निकलते गए तो न तो किसी मामा की गारंटी मांगी गई न ही किसी चाचा की। धन्य है यह देश और इसके नियम की दुहाई देने वाले बैंक जो अपना फायदा दिखाने की होड़ में अंधे होकर गरीबों को नियम की दुहाई देकर कभी महीनों तो कभी वर्षों भटकाते रहते हैं, फिर जब कोई शख्स हीरों की चमक दिखाता है तो उस ओर मानों अपने घर तक का पैसा लुटाने पर उतारू हो जाते हैं।
देश और स्केंडल की राशी लगभग एक ही प्रतीत होती है, जहां सरकार लाख प्रयास कर ले पर इनके ग्रह यहां बैठे मूर्धन्य खजांची विद्वानों की बुद्धिमता के कारण करोड़ों रुपये तिजोरियों के बाहर निकाल कर यूं ही लुटा देते हैं। कितनी विडंम्बना है अब हजारों करोड़ की वसूली को लेकर चिंता जताई जा रही है। तो क्यों नहीं देश मे लगने वाली लोक अदालतों में इस पर भी समझौते का नोटिस भेज दिया जाए? देश के बैंकों से आम जरूरतमन्द को कर्ज तो क्या उसकी स्वयं की जमा पूंजी को हासिल करने में जान निकल जाती है।
दूसरी तरफ वाणिज्य के विद्वान कठिन रास्तों को आसान बना कर जिस पर दिल आ जाये उसे रातों रात अरबपति बना देते हैं। निःसन्देह देश के हर बैंक में सरकार नज़र नहीं रख सकती पर कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि किसी पर अरबों लुटाने और किसी को सौ-हजार रुपयों के लिए चक्कर लगवाने वाले इन महाईमानदार बैंकों की कार्यप्रणाली पर तो नज़र रखी जाए। बहरहाल आज देश मे जो बहस छिड़ी है उससे उस कहावत पर कुठाराघात हुआ है जिसमें कहा जाता है खाली हाथ आये थे खाली हाथ जाएंगे…..!