नहाय-खाय के साथ कल 5 नवंबर से शुरू होगा सूर्योपासना का महापर्व छठ, नदी घाटों में होगी भगवान सूर्य की विशेष पूजा
कटनी। सूर्योपासना का महापर्व छठ उत्तर भारत के साथ-साथ शहर व उपनगरीय क्षेत्रों में इस वर्ष भी धूमधाम से मनाया जाएगा। पर्व को पूरी श्रृद्धा, भक्ति व आस्था के साथ मनाए जाने नदी घाटों में तैयारियां तेज कर दी गई हैं। शहर में छठ पर्व की विशेष पूजा उपनगरीय क्षेत्र छपरवाह के सिमरौल नदी स्थित चक्की घाट, गायत्रीनगर में बाबा घाट, एनकेजे क्षेत्र में जलंगार नदी के बजरंग घाट, कटाएघाट सहित शहर व उपनगरीय क्षेत्र के दूसरे नदी घाटों में की जाती है। छठ पूजा हिंदू धर्म का बेहद महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है। इस साल इस महापर्व की शुरुआत नहाय-खाय के साथ कल 5 नवंबर को हो रही है। इस चार दिवसीय त्योहार में 36 घंटे का कठोर उपवास रखा जाता है जो सूर्य देव और उनकी बहन छठी माता को समर्पित है। छठ पूजा बिहार और यूपी के सबसे बड़े और प्रमुख त्योहारों में से एक है, जहां घरों की सफाई से लेकर पूजा सामग्री, सूप खरीदने तक की तैयारी कई दिन पहले ही शुरू हो जाती है। यह पर्व वैदिक युग से चला आ रहा है।
नहाय-खाय के साथ शुरू होगा पर्व
दीपावलगी के चौथे दिन यानि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को नहाय-खाय की परंपरा होती है। इस दिन कुछ खास रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है। इस साल छठ पूजा कल 5 नवंबर नहाय-खाय से शुरू हो रही है। इस दिन घर का शुद्धिकरण किया जाता है। इसके बाद छठ व्रती स्नान कर शुद्ध सात्विक भोजन ग्रहण कर अपना व्रत शुरू करते हैं। नहाय-खाय में व्रती चावल के साथ लौकी की सब्जी, छोले और मूली जैसे आदि व्यंजनों का सेवन करते हैं। उपवास करने वाले व्यक्ति के भोजन करने के बाद ही परिवार के बाकी सदस्य इस महाप्रसाद का सेवन करते हैं।
नहाय-खाय के धार्मिक महत्व पर एक नजर
नहाय-खाय को छठ पूजा की शुरुआत का प्रतीक माना जाता है। इस दिन व्रत करने वाले व्यक्ति किसी पवित्र नदी या तालाब में स्नान करते हैं और प्रसाद के रूप में कच्चे चावल, चने और लौकी की सब्जी भोजन के तौर पर ग्रहण करते हैं। यह भोजन शुद्ध और पवित्र माना जाता है। इस दिन नमक वाला भोजन केवल एक बार ही किया जाता है। नहाय-खाय का सार पवित्रता से जुड़ा हुआ है क्योंकि इस शुभ दिन पर व्रती खुद को शुद्ध करते हैं और सात्विक और पवित्र तरीके से छठ व्रत शुरू करते हैं।
सूर्यदेव के साथ पत्नी प्रत्यूषा की भी की जाती है पूजा
छठ पर्व सूर्य देवता और छठीछठी मइया को समर्पित है। छठ पूजा के चार दिनों के अनुष्ठान में तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। इस दिन का उद्देश्य सूर्य देवता और उनकी पत्नी प्रत्यूषा को सम्मानित करना है। यह पर्व 4 दिनों तक चलता है। दूसरे दिन खरना की रस्म पूरी की जाती है और तीसरे दिन यानी कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को डूबते हुए सूर्य को अघ्र्य देकर छठ पूजा की जाती है। छठ पूजा के चौथे दिन सप्तमी तिथि को उगते हुए सूर्य को अघ्र्य देने के साथ ही छठ पर्व का समापन हो जाता है।
सूर्य देवता की पूजा का महत्व
सूर्य देवता को जीवन का आधार और शक्ति का प्रतीक माना जाता है। उनकी उपासना से न केवल शरीर में ऊर्जा का संचार होता है बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य भी मजबूत होता है। वे नवग्रहों में एकमात्र प्रत्यक्ष देवता हैं, जिन्हें अपने भक्त प्रत्यक्ष देख सकते हैं और उनसे ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं। सूर्य देवता की उपासना का उद्देश्य जीवन में सकारात्मक ऊर्जा, स्वास्थ्य, धन और समृद्धि का आशीर्वाद प्राप्त करना होता है।
डूबते हुए सूर्य को अघ्र्य देने का कारण
छठ पूजा में तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अघ्र्य देने की परंपरा है। डूबते सूर्य को अघ्र्य देने का विशेष महत्व है क्योंकि यह समय प्रतीकात्मक रूप से जीवन के संघर्षों और कठिनाइयों को समाप्त करने और नवजीवन का आरंभ करने का संकेत देता है। डूबते सूर्य की पूजा करके व्यक्ति जीवन में आने वाले अंधकार को दूर करने और नई ऊर्जा के साथ अगली सुबह का स्वागत करने की शक्ति प्राप्त करता है।
छठ पर्व और देवी प्रत्यूषा का संबंध
डूबते हुए सूर्य को अघ्र्य देने के दौरान सूर्यदेव की पत्नी प्रत्यूषा की भी पूजा की जाती है। प्रत्यूषा का संबंध सांध्यकाल से है और उन्हें शाम के समय की देवी माना जाता है। प्रत्यूषा का नाम प्रत्यूष से बना है, जिसका अर्थ संध्या या सूर्यास्त का समय है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्रत्यूषा सूर्यदेव की दूसरी पत्नी मानी जाती हैं। कहा जाता है कि सूर्य देव के डूबते हुए स्वरूप के माध्यम से उनकी पत्नी प्रत्यूषा की भी पूजा होती है ताकि शाम का समय भी सुख-समृद्धि और शांति प्रदान करे। मान्यता है कि जब सूर्य देव अपनी पत्नी संज्ञा से अलग हुए तो संज्ञा के रूप का विस्तार प्रत्यूषा और छाया के रूप में हुआ। प्रत्यूषा और छाया दोनों ही संज्ञा के विभिन्न रूप माने गए। सूर्य के अस्त होते समय प्रत्यूषा का प्रभाव बढ़ता है इसलिए डूबते हुए सूर्य को अघ्र्य देते समय प्रत्यूषा की भी पूजा होती है। यह पूजा समस्त जीव-जंतुओं को ऊर्जा प्रदान करने के लिए सूर्य देव के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति है।