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दिल्ली का दिल किसने तोड़ा? हिंदुस्तान रो दिया…

इसी बहाने (आशीष शुक्‍ला) । कहते हैं इतिहास दोहराता है। इतिहास दोहराने के कई उदाहरण भी अक्सर देखने मिलते हैं, लेकिन जब काला इतिहास दोहराने का मंजर दिखे तो मन व्यतिथ हो जाता देश की राजधानी में मानों कल ही कि बात थी, लोकतंत्र का उत्सव मन रहा था, दिल्ली भी इठला रही थी।

कोई इसे मतवाली तो कोई दिल वाली दिल्ली से सम्बोधित कर रहा था। दुनिया भर की राजधानियों में सिर्फ एक दिल्ली ही थी जहां प्रदूषण के बाद भी लोग खुशनुमा सांस ले रहे थे। भारत के आकाश को चूमती कुतुब मीनार सिर उठाये यूं खड़ी थी मानों दुनिया को सिर उठाकर जीने का संदेश दे रही हो, लालकिला अपनी खूबसूरती पर इतरा रहा था। इंडिया गेट सुबह के कोहरे में अपनी ध्वलीय चमक से दिल्ली वालों को आल्हादित कर रहा था। ऐसे एक दो नहीं सैकड़ो स्थान इस प्राचीन हस्तिनापुर को दुनिया मे शांति का संदेश दे रहे थे।

फिर अचानक किसकी नजर लग गई? क्यों सुनहरे दिल की दिल्ली के दिल में नफरत की ज्वाला भड़क उठी, सड़क पर वैमनस्यता चारों ओर फैल गई। जुबानी तीर ने दिल्ली के दिल पर ऐसा वार किया कि हिंसा के रक्त से दिल्ली का रंग लाल हो गया ऐसा लाल कि लाल किले को भी स्वयं की लालिमा पर अफसोस हो रहा है। ८४ कि बात लोगों की जुबां पर आई तो फिर से मन भय और दहशत में समा गया।

इतिहास यूं न दोहराए स्वयं को। बहरहाल देश की राजधानी में नफरत की इस चिंगारी को हवा देने वालों की पहचान में वक्त ने दिल्ली की खाकी पर भी सवाल खड़े किए हैं। दिल्ली की पुलिस पर निःसन्देह देशवासियों को गर्व है फिर क्या मजबूरी थी जो अपने कर्तव्य को मजबूर समझ कर खाकी भी शर्मसार हो गई।

आज दिल्ली पूछ रही है। कौन है उसके दिल पर खंजर चलाने वाला ? कौन है बहती यमुना और यहां बसती गंगा की तहजीब को तार तार करने वाला? सवाल दिल वाली दिल्ली के मन मे बहुत हैं, जबाब केवल एक है नफरत की आग। इस आग में किसी ने घी डाला तो कोई इस पर पानी की बौछार करने से बचता रहा, अरे कम से कम स्वयं की न सही देश की इज्जत को यूं दुनिया मे मत मिटाओ, सत्ता क्या है आती जाती है प्राचीन दिल्ली को तो नफरत की इस आंधी से बचाओ।

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