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दृष्टिहीन किरदार को कि‍तना नि‍भाया राजकुमार राव ने, बायोपिक के ढलते दौर में तुषार की तीसरी कोशिश

दृष्टिहीन किरदार को कि‍तना नि‍भाया राजकुमार राव ने, बायोपिक के ढलते दौर में तुषार की तीसरी कोशिश

दृष्टिहीन किरदार को किताना नाइकेभाई प्रिंस राव ने, संगीतकार के नाटकते दौर में तुषार की तीसरी कोशिश

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प्रतिभाशाली
कलाकार
प्रिंस राव, ज्योतिका, अलाया एफ, शरद केलकर और जमील खान आदि
लेखक
जगदीश स्टूडियो और सुमित पुरोहित
निर्देशक
तुषार हीरानंदानी
निर्माता
भूषण कुमार और निधि परमार हीरानंदानी
रिलीज़
10 मई 2024
रेटिंग

तुषार हीरानंदानी ने हिंदी सिनेमा में 20 साल की हर तरह की फिल्में बनाईं। साल 2004 में आई फिल्म ‘मस्ती’ से शुरुआत करने वाले तुषार के निर्देशन में बनी फिल्म ‘सांड की आंख’ के बाद यह दूसरी फिल्म है। बीच में उन्होंने वेब सीरीज ‘स्कैम 2003’ का भी निर्देशन किया है। ‘

तुषार की लिखी फिल्मों में कॉमेडी फिल्मों की संख्या काफी है और उनकी लिखी फिल्म ‘क्यों हो गया ना’ भले न चली हो लेकिन उसकी लिखावट में बुने गए भावनात्मक दृश्य अपने समय से काफी पहले के एहसास माने जा सकते हैं। तुषार अच्छे लेखक हैं। ‘स्कैम 2003’ में उनका निर्देशन भी निखरा दिखाई दिया। लेकिन, इस बार उन्होंने एक ऐसे विषय पर फिल्म बनाने का फैसला किया है, जिसके अधिकार खरीदने के बाद भी राकेश ओमप्रकाश मेहरा जैसा निर्देशक उस पर फिल्म बनाने का साहस नहीं जुटा पाया।

 

तुषार ने चुना काबिले तारीफ विषय

दिलीप कुमार की फिल्म ‘दीदार’ से लेकर नसीरुद्दीन शाह की ‘स्पर्श’, रानी मुखर्जी की ‘ब्लैक’, काजोल की फिल्म ‘फना’ से होते हुए सोनम कपूर की हालिया रिलीज फिल्म ‘ब्लाइंड’ तक हिंदी सिनेमा में दृष्टिहीन किरदारों का लंबा सिलसिला रहा है। इसमें आंखें होते हुए भी दृष्टिहीन बनकर रहने वाले ‘अंधाधुन’ जैसे किरदारों को जोड़ दें तो फेहरिस्त और लंबी हो सकती है। हर बड़ा स्टार एक बड़ा कलाकार बनने के लिए अपनी अभिनय यात्रा में कम से कम एक बार दृष्टिहीन किरदार करने की ख्वाहिश रखता ही है। फिल्म ‘सांड़ की आंख’ में बुजुर्ग निशानेबाजों की कहानियां बताने वाले तुषार की वेब सीरीज ‘स्कैम 2003’ में खूब तारीफ हुई और तारीफ उनकी फिल्म ‘श्रीकांत’ बनाने के लिए भी होने वाली है।

श्रीकांत से श्रीकांत तक

फिल्म ‘श्रीकांत’ मनोरंजन के लिए बनी फिल्म नहीं है। ये फिल्म उन व्यवस्थाओं की तरफ उंगली उठाने वाली बायोपिक है जिनसे लड़कर श्रीकांत बोल्ला एक सफल कारोबारी बने। तत्कालीन राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम से मिलने पहुंचे छात्रों में से जब एक छात्र बड़ा होकर देश का पहला दृष्टिबाधित राष्ट्रपति बनने का इरादा जाहिर करता है और फिल्म खत्म होने के बाद जब स्क्रीन पर ये लिखकर आता है कि श्रीकांत बोल्ला आज भी अपनी इस ख्वाहिश के साथ जी रहे है तो फिल्म का मकसद साफ हो जाता है।श्

फिल्म की कहानी श्रीकांत बोल्ला के जन्म से शुरू होती है, जब उसका पिता लोगों की ये सलाह मानकर अपने बेटे को दफनाने पहुंच जाता है कि इसे अभी मार दो नहीं तो जीवन भर ये कष्ट में रहेगा और माता-पिता को भी कष्ट देता रहेगा। पिता उसका नाम क्रिकेटर कृष्णामाचारी श्रीकांत के नाम पर रखता है और वह बड़ा होकर क्रिकेट खेलता भी है।

कामयाबी के अहंकार में फंसी कहानी

श्रीकांत बोल्ला दिल का सच्चा इंसान है लेकिन जिद्दी है। वह शिक्षा व्यवस्था के खिलाफ कोर्ट तक जाता है ताकि इंटरमीडिएट में उसे विज्ञान विषयों के साथ पढ़ने की अनुमति मिले। वह जीतता भी है। देश के सबसे प्रसिद्ध इंजीनियरिंग कॉलेज आईआईटी में उसे प्रवेश नहीं मिलता है लेकिन दुनिया के सबसे मशहूर तकनीकी विश्वविद्यालय यानी अमेरिका के एमआईटी में उसे निशुल्क शिक्षा के साथ प्रवेश मिलता है। उसकी कामयाबी की दास्तान पढ़कर यहां डॉक्टरी की एक छात्रा वीरा स्वाति उससे प्रभावित होती है। वही अमेरिका में श्रीकांत से मिलने पर उसे वापस स्वदेश जाने के लिए प्रेरित करती है। यहां तक की कहानी बहुत ही रोचक, भावुक और सजल कर देने वाली है। फिर श्रीकांत कामयाब होता है। उसके अंदर अहंकार आता है। अपनी ही मदद करने वाले रवि को वह बार बार जलील करता है, लेकिन दोस्त है कि ‘आपदगतिम् च न जहाति ददाति काले’ का अनुसरण करता हुआ संतों के बताए मित्रों के लक्षणों पर सौ फीसदी खरा उतरता है।

देविका के नजरिये को भूल गई फिल्म

फिल्म ‘श्रीकांत’ उद्योगपति श्रीकांत बोल्ला का स्तुति गान नहीं है। वह उनकी शख्सीयत को हू ब हू परदे पर पेश करने की कोशिश करती है और इस फेर में इंटरवल के बाद डॉक्यूमेंट्री सी लगने लगती है। लेकिन, इस कहानी की असल नायक हैं टीचर देविका। जिनका नाम मिलाकर श्रीकांत अपने पहले इंस्टीट्यूट का नाम रखता है, श्री-देवी! देविका निस्वार्थ भाव से श्रीकांत को पढ़ाती है और अमेरिका में उसके दाखिले तक उसके साथ रहती है। श्रीकांत के वापस भारत आने पर देविका ही उसकी सबसे बड़ी मददगार भी बनती है। ये पूरी फिल्म अगर देविका के ही दृष्टिकोण से बनाई गई होती तो इसका स्तर कुछ अलग ही होता, लेकिन इसे बनाया गया है श्रीकांत के उन दोस्त रवि मंथा के नजरिये से जिन्होंने असल जिंदगी में इस फिल्म के अधिकार दिलाने में तुषार हीरानंदानी की मदद की।

दिव्यांगों की कहानी के कद्रदान कम

अभी चार साल पहले हुए एक अध्ययन में ये पाया गया कि देश में करीब 50 लाख लोग दृष्टिहीन हैं और करीब सात करोड़ लोग किसी न किसी तरह के दृष्टिविकार से पीड़ित हैं। फिल्म कारोबार के अनुमान बताते हैं कि 140 करोड़ की आबादी में कुल तीन फीसदी लोग ही सिनेमा देखते हैं। और, ये सारे आंकड़े मैंने इसीलिए गिनाए ताकि समझ आ सके कि मौसमी चटर्जी की बेहतरीन अदाकारी वाली फिल्म ‘अनुराग’ से लेकर हेमा मालिनी की फिल्म ‘किनारा’ तक में दृष्टिहीन किरदारों को प्रेम करने वाले लोग इन तीन फीसदी में भी कितने कम हो सकते हैं।

शारीरिक विकलांगता पर बनी फिल्मों में अमिताभ बच्चन और रानी मुखर्जी की फिल्म ‘ब्लैक’ की गिनती कालजयी फिल्मों में होती है, लेकिन ‘दोस्ती’ जैसी कामयाबी इस फिल्म को भी नहीं मिली। सामाजिक संदर्भों वाली फिल्में देखने वाली पीढ़ी अब या तो रही नहीं या फिर इस हाल में है कि सिनेमाघरों तक जाना उनके लिए किसी पहाड़ को लांघने से कम नहीं। ऐसे में ‘श्रीकांत’ जैसी फिल्मों को टिकट खिड़की पर मिलने वाली सफलता भी किसी चुनौती से कम नहीं है।

राजकुमार राव का एकांगी अभिनय

अभिनय के लिहाज से ये फिल्म राजकुमार राव की यादगार फिल्म हो सकती थी, अगर राजकुमार ने दृष्टिहीनों को दैनिक जीवन में आने वाली दिक्कतों को इस फिल्म में जीकर दिखाया होता। दिन के जरूरी काम निपटाने में आने वाली समस्याएं किसी दृष्टिहीन किरदार से दर्शकों को जोड़ने का सबसे आसान और सशक्त माध्यम बनती हैं, लेकिन ये चीजें फिल्म की पटकथा में नहीं है।

यहां पूरा फोकस श्रीकांत की पढ़ाई, उसकी कारोबारी सफलता और फिर एक सफल कारोबारी को खुद पर होने वाले अभिमान पर केंद्रित है। किसी भी फिल्म का हीरो जैसे ही एक स्याह घेरे मे जाने लगता है, दर्शकों का उससे ताल्लुक तुरंत टूट जाता है। राजकुमार राव ने पूरी फिल्म में एक ही तरह की भंगिमा बातें करते वक्त ओढ़े रखी है और एक समय के बाद यह बहुत ही एकांगी लगने लगती है। उनकी कोशिश अच्छी है लेकिन इस फिल्म को करने से पहले अगर उन्होंने ‘स्पर्श’ में नसीरूद्दीन शाह या फिर ‘शोले’ में ही ए के हंगल का अभिनय देख लिया होता तो उन्हें अपने अभिनय को बेहतर करने में मदद मिल सकती थी। कुमुद मिश्रा की फिल्म ‘नजरअंदाज’ भी बढ़िया संदर्भ बिंदु है।

 

पापा तो कहते ही रहेंगे, बड़ा नाम करेगा

अलाया एफ ने स्वाति को फिल्म के किरदार से प्रभावित किया है। वह आहिस्ता आहिस्ता मजबूत हो चुके कलाकार हैं और उन्हें अपना दमखम दिखाने के लिए मशीन भी अच्छे मिल रहे हैं। किसी फिल्म में एक पूरे पूरे किरदार से मुलाकात पर वह क्या कर पाई, इसका इम्तिहान अभी बाकी है। ज्योतिका को फिल्म ‘शैतान’ में एक लाचार मां के किरदार में देखने के बाद यहां एक स्ट्रांग टीचर के रोल में देखने को बेहतर मिल रहा है। उन्होंने फिल्म ‘श्रीकांत’ में मुख्य भूमिका निभाई है।

रासायनिक रसायनों में एक बार इस्तेमाल होने के बाद लागत कम हो जाती है, लेकिन यहां उनकी देविका ट्रेनर का किरदार बार बार फिल्म के असफल होने से छूटते ही उन्हें सहारा देना आ जाता है। शरद केलकर के लिए अपनी अभिनय क्षमता का यह बेहतर अवसर बन रहा है।

ए पी जे अब्दुल कलाम के किरदार ‘गुल्लक’ वाले जमील खान ने ठीक काम किया है। फिल्म का पूरा म्यूजिक फिल्म ‘कयामत से कयामत तक’ के गाने ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम चाहेंगे’ पर रुका है, और दूसरा भी गाना फिल्म खत्म होने के बाद दर्शकों के जहां में रह नहीं पाता।

कुल मिलाकर फिल्म ‘श्रीकांत’ इंटरवल तक एक अच्छी और उसके बाद एक औसत दर्जे की फिल्म है, जो एक बेहतरीन फिल्म का वर्णन करती है और समीक्षकों पर फिल्म का दबाव बना हुआ है। दोस्ती पर ये फिल्म अच्छे व्यूज पा सकती है।

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