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सृष्टि के प्रारंभ का उत्सव है गुड़ी पड़वा,जानिये कुछ खास बातें

चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को उत्तर भारत में गुड़ी पड़वा या गुड़ी पाड़वा के नाम से मनाया जाता है। इसे उगादि (युगादि) भी कहा जाता है। इसी दिन हिंदू नववर्ष का आरंभ होता है। ‘गुड़ी” का अर्थ होता है – ‘विजय पताका”, ‘युग”, और आदि शब्दों की संधि से बना है ‘युगादि”।

गुड़ी पड़वा को संस्कृत में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के नाम से जानते हैं। दक्षिण मान्यता के हिसाब से यह चैत्र मास के पहले दिन और उत्तर में इसे चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इसी दिन से हिंदू नववर्ष का प्रारंभ माना जाता है।

गोवा और केरल में कोंकणी समुदाय इसे ‘संवत्सर पड़वो” के नाम से मनाया जाता है। कर्नाटक में यह पर्व ‘युगाड़ी” के नाम से मनाया जाता है।

आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में ‘गुड़ी पड़वा” और उगाड़ी” के नाम से मनाते हैं। कश्मीरी हिंदू इस दिन को ‘नवरेह” के तौर पर मनाते हैं। मणिपुर में यह दिन ‘सजिबु नोंगमा पानबा” या ‘मेइतेई चेइराओबा” कहलाता है। इस दिन चैत्र नवरात्रि का भी आरंभ माना जाता है।

क्यों मनाते हैं गुड़ी पड़वा

इस त्योहार को मनाने के पीछे कई मान्यताएं हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का निर्माण किया था और मानव सभ्यता की शुरुआत हुई थी। इसमें मुख्यत: ब्रह्माजी और उनके द्वारा निर्मित सृष्टि के प्रमुख देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षस, गंधर्व, ऋषि-मुनियों, नदियों, पर्वतों, पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों का ही नहीं, रोगों और उनके उपचारों तक का पूजन किया जाता है। इसी दिन से नया संवत्सर शुरू होता है। अत: इस तिथि को नवसंवत्सर भी कहा जाता है।

गणितज्ञ भास्कराचार्य द्वारा इसी दिन से सूर्योदय और सूर्यास्त तक दिन, मास और वर्स की गणना कर पंचांग की रचना की गई थी। इसी कारण हिंदू पंचांग का आरंभ भी गुड़ी पड़वा से ही होता है।

एक अन्य मान्यता यह भी है कि इसी दिन भगवान श्रीराम ने बाली के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलवाई थी। बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उन्सव मनाकर ध्लज (गुड़ी) फेहराए थे। आज भी घर के आंगन में गुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है, इसलिए इस दिन को गुड़ी पड़वा का नाम दिया गया है।

एक और कथा के अनुसार शालिवाहन एक कुम्हार के बेटे थे फिर भी उन्होंने अपने साथियों के साथ एक सेना बनाई और शक्तिशाली शत्रु को पराजित किया। इस विजय के प्रतीक के रूप में शालिवाहन शक संवत प्रारंभ हुआ।

गुड़ी पड़वा मनाने की विधि

महाराष्ट्र में इस त्योहार का खास महत्व है। इस दिन नई चीजें, नए आभूषण और घर खरीदने को शुभ माना जाता है। गुड़ी पड़वा के दिन घरों में गुड़ी की स्थापना होती है। गुड़ी एक बांस का डंडा होता है, जिसे हरे या पीले रंग के कपड़े से सजाया जाता है।

इस कपड़े को बांस के डंड पर सबसे ऊपर बांधा जाता है। इसके अलावा माला, नीम और आम के पत्ते भी बांधे जाते हैं। सबसे ऊपर तांबे या चांदी का लोटा रखा जाता है। गुड़ी को लोग भगवान ब्रह्मा के झंडे के रूप में देखते हैं।

इसकी स्थापना कर लोग भगवान विष्णु और ब्रह्मा के मंत्रों का उच्चारण कर उनसे प्रार्थना करते हैं। गुड़ी को किसी ऊंचे स्थान जैसे कि छत पर लगाया जाता है, ताकि उसे दूर से भी देखा जा सके। कई लोग इसे घर के मुख्य दरवाजे या खिड़कियों पर भी लगाते हैं।

पूजा विधि

1. ब्रह्म मुहूर्त में उटकर घर की सफाई और नित्य कामों से निवृत्त होकर अपने शरीर पर बेसन और तेल का उबटन लगाकर शुद्ध होकर स्नान आदि करते हैं। शास्त्रों के अनुसार इस दिन अरुणोदय काल के समय अभ्यंग स्नान अवश्य करना चाहिए। इस सबके पश्चात लोग इस पर्व की तैयारी करते हैं।

2. सूर्योदय के तुरंत बाद गुड़ी की पूजा का विधान है, लोग गुड़ी को सजाते हैं। इसमें अधिक देरी नहीं करनी चाहिए, जिस स्थान पर गुड़ी लगानी हो, उसे भली-भांति साफ कर लेना चाहिए। पूजन का शुभ संकल्प कर जगह को पवित्र करने के लिए सबसे स्वास्तिक चिह्न बनाएं।

एक चौकी या बालू की वेदी का निर्माण कर उसमें साफ सफेद रंग का कपड़ा बिछाकर उस हल्दी या केसर से रंगे अक्षत से अष्टदल कमल बनाकर उस पर ब्रह्माजी की स्वर्णमूर्ति स्थापित करें। स्वस्तिक के केंद्र में हल्दी और कुमकुम लगाएं। इसके बाद गणेशाम्बिका की पूजा करें और हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर भगवान ब्रह्माजी के मंत्रों का उच्चारण करने के बाद पूजा शुरू करें।

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