इसी बहाने

गढ़ ढहाने वालों के दिन फिलहाल अच्छे हैं…

इसी बहाने (आशीष शुक्‍ला)। कहावत सही है कि अहंकार तो रावण का भी नहीं चला, कंश को भी एक बालक ने पटखनी दे दी। कहा तो यह भी जाता है कि अंहकार घर में भी नहीं चलता तथा जल्द ही पतन का कारण बन जाता है। भारत और चुनाव परिणाम का तो चोली दामन का साथ है। यहां हर पखवाड़े एक चुनाव परिणाम जरूर आते हैं और नेता तथा जनता को परिणामों के बाद इसके विश का भरपूर मौका मिलता है। यह अब कहावत नहीं हकीकत की वह धूरी है जो हर जिम्मेदार माननीय के लिए किसी शिक्षा से कम नहीं।

आज कारण कोई भी गिनाए जाएं, लेकिन परिणामों के भीतर कहीं न कहीं छिपा है तो वह उददेश्‍य  जिससे सत्ता हो या फिर विपक्ष अपने आप को विमुख नहीं कह सकता। देश की राजनीति में कब कौन सा गठबंधन अपना जलवा दिखा दे कुछ नहीं कहा जा सकता। अच्छे-अच्छे धुरंधरों को पता नहीं कब कहां अदना सा व्यक्ति पटखनी दे दे यह भी नहीं जाना जा सकता। संबंध कब सुधर जाएं और कब बिगड़ जाएं पता नहीं। चाचा-भतीजा कब एक दूसरे के दुश्मन बन जाएं तो कब बुआ-भतीजा एक दूसरे के गुणगान करने लगें किसी को नहीं मालूम। यह भी समझ में नहीं कि आता कि कब किसके लाल किले का रंग बदल कर भगवा में तब्दील हो जाए। तभी तो दुनिया में भारत का यह लोकतंत्र अनूठा है जिसमें कोई भी अपने आप को सर्वव्यापी सर्वज्ञ नहीं कह सकता। देश में अब जागरूकता की कमी नहीं है। चेहरे अब किसी आकर्षण का केन्द्र नहीं, यहां तो जनता का चेहरा ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है, जो पता नहीं कब किसके चेहरे का रंग उड़ा दे।

होली को बीते ज्यादा दिन नहीं, तब भगवा का गुलाल उत्तरपूर्व में कुछ ऐसा उड़ा कि सब रंग फीके पड़ते दिखे, लेकिन वक्त ज्यादा गुजरा नहीं और रंग का रंग बदलते देर नहीं लगी। अब यह दो रंगों के रंग में कुछ ऐसा रंगा कि सब हतप्रभ रहने कि सिवा कुछ नहीं कर सकते। लब्बोलुवाब यही कि मेरा देश बदल रहा है आगे तो बढ़ ही रहा है, समझदार भी बन रहा है। गया वो जमाना जब किसी को कोई चेहरा देख कर चुन ले। अब तो हर व्यक्ति का पूरा-पूरा आंकलन होने में देर नहीं लगती। कोई भी इस अहंकार में कदापि न रहे कि उसके बिना कुछ नहीं हो सकता, क्योंकि कुछ करके दिखाने वालों को संख्या इस देश के लोकतंत्र में बढ़ गई है। एक जगह दंभोक्ति करने से पहले ही दूसरी जगह परिणामों का चाबुक ऐसा चलता है कि सारे के सारे गणित फेल हो जाते हैं। यहां अंगद का पैर हिलाने वाले कब प्रगट हो जाएं कुछ पता नहीं। लिहाजा वक्त की कसौटी को समझना ही बेहतर होगा, अन्यथा फैसला सुनाने में जनता देर नहीं लगाएगी। फिर कोई यह भी दंभ नहीं भर सकता कि अब देश का कोई भी क्षेत्र किसी का गढ़ है। गया अब जमाना गढ़ बनाने का यहां तो गढ़ ढहाने वालों का समय अब शुरू हो चुका है। समय रहते जनता के प्रति अपनी जवाबदेही तय करना ही श्रेयस्कर है, अन्यथा घमंड या अहंकार के गढ़ में सेंध लगते देर नहीं लगती। समझने वालों के लिए परिणाम कभी छोटे नहीं हो सकते बसर्ते इसे समझने में देर न लगे और देर हुई तो परिणाम आपके सामने ही है।

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