इसी बहाने

सूरज की पहली किरण से दायित्व की कसौटी..

इसी बहाने (आशीष शुक्‍ला )। महिलाओं की दिशा और दशा बदलने के प्रयास अब परिणाम में तदील हो गए हैं ।

ashish shukla अब से कुछ वर्ष पहले तक न तो वर्ल्ड वूमेन डे पर कोई जागरूकता थी न ही ऐसे किसी आयोजनों की भरमार, पर अब तो इस दिन को एक त्यौहार की भांति सेलिब्रेट किया जाने लगा है। महिला दिवस या इस जैसे दिवसों पर महिलाओं के सशक्तिकरण की व्यायानमालाओं में महिलाओं के प्रति जो शदों के मोती चुन-चुन कर निकलते हैं उन्हें सुनकर दिल को काफी सुकून होता है।

फिर इस सशक्तिकरण के व्यायान से संसद में महिलाओं को प्रतिशत आरक्षण की बहस सुनते हैं तो दिल सोचने पर विवश हो जाता है कि महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए या महिला दिवस जैसे आयोजन महज दिखावा मात्र हैं। देश मे महिलाओं की इस भूमिका को लेकर सवाल जवाब अब तक सिर्फ चर्चा, परिसंवाद या समान तक ही सीमित हैं। कहना बिल्कुल भी गलत नहीं कि महिलाओं की सशक्तिकरण की दिशा में सार्थक प्रयास तभी कामयाब होंगे जब भाषणों की बाजीगरी से बाहर इनके लिए मूर्त रूप में भी कुछ काम होगा। वैसे सरकारें इसके लिए तमाम प्रयास कर रहीं हैं।

रोजगार के साथ कई ऐसे स्थान हैं जहां महिलाओं की बराबर की भागीदारी दिखने लगी है। कलतक जो काम महिलाओं के लिए असंभवमाने जाते थे आज वह महिलाओं नेसफलतापूर्वक करके दिखाया। सीमा पर दुश्मनों से लोहा लेने से लेकर फाइटर ह्रश्वलेन चलाने तक महिलाओं ने स्वयं को पीछे नहीं रखा। घर की जिमेदारियों से लेकर देश के नेतृत्व तक महिलाओं के लिये कोई भी फील्ड अब अनजान नहीं हैं।

हालांकि इसमें बहुत हद तक महिलाओं के स्वयं के हौसले की कहानी ही है। सार यह कि तंत्र सशक्तिकरण के चाहे जितने उपाय कर ले पर तंत्र में बैठे लोग कभी सशक्त नहीं हो सकते। ऐसे लोग किसी भी महिला को अपने समकक्ष ठहरने में स्वयं की तौहीन समझते हैं। सरकारी विभाग हों, राजनीतिक दल या फिर सामाजिक संस्थाएं हर जगह महिला शद आते ही पुरूषों के लिए यह चिंता का सबब बन जातीं हैं।

महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में हम सब तब तक कारगर नहीं होंगे जब तक महिलाओं के प्रति अपनी सोच में बदलाव नहीं लाएंगे। कार्यक्रम या फिर इनके जरिए .महिलाओं के दिशा और दशा बदलना महज वहीं मीटिंग की भांति है जिसे हमारी भाषा में चींटिंग कहते हैं। आज ही जब सोशल मीडिया पर एक महिला की पोस्ट पर हमारी नजर गई तो बिना पढ़े रहा नहीं गया। जिसमें महिलाओं की वास्तविक भागीदारी पर काफी सटीक लिखा था।

इसमें जिक्र था उस महिला का जिसे हम गृहणी का नाम देते हैं या फिर फक्र से बता भी नहीं पाते कि वह एक हाउस वाइफ है। आज देश की आधी से अधिक आबादी में वहीं महिला रोज सुबह से शाम सिर्फ और सिर्फ जीवन के संघर्ष में जुटी रहती हैं। कोई सड़क पर सजी बेजकर अपने परिवार का  वकोपार्जन करतीं हैं तो कोई घर में मजदूरी कर खुश रहतीं है। कोई रेल के डिबों में सामान बेच कर अपना पेट पालने पर विवस है, तो कोई सड़क किनारे सजी बेचकर देर रात घर पहुंच कर अपने परिवार के लिए भोजन बनाती है।

चिंता उनमहिलाओं की भी होनी चाहिए जिसे सुबह से शाम तक घर की हर उस चीज फिक्र रहती है जिसे एक पुरूष फिक्र को धुएं में उड़ाता नजर आता है या फिर सफलता का मुकाम हासिल करता है। महिलाओं की चिंता उस स्तर से शुरू होना चाहिए जहां से घर की बुनियाद शुरू होती है और निः संदेह अगर घर की इन चिंता के बाद भी अलग-अलग दायित्वों में महिलाएं अपना मुकाम हासिल कर रहीं है तो यह पुरूष प्रधान समाज के लिए किसी शिक्षा से कम नहीं।

अफसोस दायित्वों के शीर्ष पर पहुंची ऐसी तमाम महिलाओं की चर्चा तो हम रोज सुनते हैं पर इस मुकाम को हासिल करने में उस बुनियाद रूपी महिला को भूल जाते हैं जिसके हाथों का खाना खा कर, जिसकी दी हुई शिक्षा को पाकर आज महिला हो या फिर पुरूष इस मुकाम पर पहुंचा। नमन है उन महिलाओं को जो अपनी जिमेदारियों को रोज नये तरीके से निर्वहन करतीं हैं। समान की श्रंखला में पहला हक शायद उस महिला का ही है जोजद्दोजहद की इस दुनिया में उगते सूरज से पहले अपनी घरेलू और फिर अपने दायित्व के प्रति सजग हो जातीं हैं और डूबते सूरज के साथ फिर एक नये दिन में नये काम की जद्दोजहद जेहन में लेकर सो जातीं हैं।

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